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‘आरक्षण’ आज का एक ज्वलंत मुद्दा

My Thought
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‘आरक्षण’ आज का या कहिये आज़ादी क बाद से का एक ज्वलंत मुद्दा. संविधान ने आरक्षण का प्रावधान क्यों रखा था… क्योकि उस समय छुआछूत व भेदभाव बहुत ज्यादा था इसका कारण आशिक्षा मुख्यतः थी. शिक्षा सिर्फ Degrees इकाट्ठी करने के लिए नही ली जाती है वरन यह अपनी समझ बढ़ाने का माध्यम भी होती है जब दस अच्छे विचार पढ़े जायेंगे तो एक न एक तो आपकी बुद्धि ग्रहण करेगी ही न.
चूकि अंग्रेजो को अपने लिए क्लर्को का एक वर्ग चाहिए था जो उनके निम्न समझने वाले पदों पर बैठे वो यह नही चाहते थे कि बाबू जैसे पदों पर बैठने के लिए उनके देश के गोरे भाई आये क्योकि इससे एक तो उनका आवागमन का खर्च बढ़ता दूसरा के वो अपने ही गोरे भाईयो पर शासन नही करना चाहते थे. इसलिए भारतीयों के एक विशेष तबके को इस कार्य के लिए तैयार किया व बाकि बहुसंख्यक वर्ग इससे वंचित रह गया. इस बहुसंख्यक वर्ग में भी जाति के आधार पर लोगो का विभाजन था जो उच्च जाति के थे वो वेद व शास्त्रों का आध्ययन करने क कारण पढ़े-लिखे माने जाते थे. यह जातिवाद भी अंग्रेजो से पहले मुगलकाल में कुछ कारणों से उपजा था.
हमारी संविधान निर्मात्री सभा का मुख्य उद्देश्य यही था कि सब को इस दौड़ कि प्रतियोगिता में एक साथ आरम्भिक बिंदु पर खड़ा कर दे फिर वह जब समान आरम्भिक बिंदु से दौड़ेंगे तो अपनी योग्यता व सामर्थ्य के आनुसार वह जीतेंगे. इस उद्देश्य के साथ उन्हें ‘आरक्षण’ रुपी ‘बैसाखी’ दी गयी ताकि एक सहारे से जल्दी से वो उनके समकक्ष दौड़ में आ जाये.
आज हमारा संविधान लागू हुए ६० साल हो गये है. लेकिन १० साल का यह लक्ष्य लेकर चले इस आरक्षण रुपी बैसाखी का साथ नही छोड़ा गया है. आज कोई ऐसा पद नही है जहाँ जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव किया जा रहा हो क्योकि कानून भी सख्त है . यह अंग्रेजो का शासन नही वरन भारतीयों का भारतीयों पर शासन है आज अपनी योग्यता के बलबूते कहीं भी आगे बढ़ सकते है लेकिन ऐसा नही हो रहा है क्यों?? क्योकि .. अब सहारे कि आदत बन चूकि है कोई आरक्षण प्राप्त व्यक्ति यह सपने में भी नही सोच पाता कि वह आरक्षण के बिना आगे बढ़ पायेगा. उनकी हालत वैसी ही कर दी गयी है जैसे नये-नये आपरेशन क बाद मरीज़ कि होती है , उसे लगता है कि मुझे इतनी कमज़ोरी है, टाँके लगे है अब तो मैं कभी आत्मनिर्भर नही हो पाउँगा ऐसे समय में डाक्टर उसे आत्मबल देकर बैसाखी से चलाता है और थोड़े दिन में बिना बैसाखी से चलना सिखाता है . हमारी सरकार भी ऐसे ही डाक्टर कि तरह है उसने अपना आधा कर्तव्य सहारा देकर तो पूरा कर दिया है अब उन्हें आत्म निर्भर होकर चलने का भी मौका दे, तो अच्छा होगा..
‘आरक्षण’ क्यों किया किया गया था? क्योकि.. समानता आये भेदभाव खत्म हो परन्तु आज इसी आरक्षण की वजह से भेदभाव और बढ़ गया है. आज का युग बहुत तेज़ी से बदल रहा है . इस एक दशक में तो अकल्पनीय परिवर्तन आये है. कई पश्चिमी संस्कृति वाले आचरण हम युवा करने लगे है. आज-कल की दौड़-भाग वाली ज़िन्दगी में हम अपने निकट के लोगो की जानकारी ही नही रख पाते है तो भला किसी और की ज़िन्दगी से क्या मतलब रखेंगे.
हम युवा जहाँ बचपन से ही ऐसे बच्चो से दोस्ती करना पसंद करते थे जो व्यवहार में अच्छा होता था और जिससे बहुत पटा करती थी, फिर धीरे-धीरे जब इंटर से निकले तो प्रवेश परीक्षाओ में कमर तोड़ मेहनतके बाद जो अंक लेट थे उसकी अपेक्षा में जब कम अंक लाये व्यक्ति का प्रवेश हो जाता है तब मन में जिज्ञासा उठती है कि ‘आखिर क्यों ऐसा हुआ?’ जवाब आता है ‘उसे आरक्षण प्राप्त है’. पहला कटुता का बीज बोता है. फिर कॉलेज में मेहनत + शरारतो के साथ समय बीतता है तो फिर ध्यान हटता है इस आरक्षण से. फिर जब फीस आधार आर्थिक से ज्यादा जाति को रखा जाता है तो फिर एक टीस उठती है कि हमारा घर तो पेंशन से चलता है उसके पिता जी तो अबी भी पद पे है वो भी अच्छी तनख्वाह क साथ तो क्यों ये हुआ?? इसका जवाब भी आता है ‘उसे आरक्षण मिला है भई’ तब फिर अनायास ही मन में एक लिस्ट तैयार हो जाती है कि कौन हमारे साथ का है और कौन ‘आरक्षित’ है. जैसे-जैसे शिक्षा पूर्ण होती जाती है और हम रोजगार प्राप्ति कि ओर अग्रसर होते है तो एक फार्म लेने से लेकर अंको के प्रतिशत तक सब जगह खुद को बेबस सा महसूस करते है. बहुत कोशिश करते है मन में दोस्तों क लिए कोई विपरीत बात न लाये क्योकि अब तो ये आरक्षण हमारा ‘भाग्य’ ही बन गया है पर फिर भी सरकार का ये समानता लाने का प्रयास कितनी आसमानता और कटुता लाता है ये हम जैसो को अच्छे से पता है! आज पश्चिमी संस्कृति कि लापरवाह जिंदगी में मस्त हो कर भी हम मस्त नही रह पाते है.

हम २१वी सदी के युवाओ कि सोच में फिर से वही भेदभावरुपी सोच को पैदा करने से बेहतर है इसका वास्तविक प्रयोग किया जाये जाति, धर्म, लिंग से बेहतर है कि आर्थिक आधार को ‘आरक्षण’ का आधार बनाया जाये क्योकि आज-कल जो आर्थिक रूप से कमज़ोर होता है वही सबसे ज्यादा पिछड़ा होता है. लोगो की हेय द्रष्टि उसी क प्रति ज्यादा रहती है क्योकि वो भौतिक संसाधनों से रहित होता है. जाति या धर्म के आधार पर सीटे आरक्षित ना करके जो साधन विहीन शेत्रो से विद्यार्थी आते है उनके लिए सीटे आरक्षित करनी चाहिए.

“दवा उसी को दे जो असल में बीमार है, ‘स्वस्थ’ को अस्वस्थ ना करे. “

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