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अब तो उड़ने दो मुझको ,पंख फ़ैलाने दो मुझको ,
माँ जब तुम जाती थी लेने को मेरे लिए खाना ,
तब चुपके से उड़ जाती थी मैं देखने को ये पूरा आशियाना,
तुमको सदा लगा ये के मैं खो न जाऊ कहीं,
किसी बहेलिये के झांसे में आ न जाऊं कहीं ,
इसी सिलसिले में मैंने तुझको ये पता न चलने दिया,
की कब मैं हो गयी एक ‘नादाँ’ से ‘सयानी’ चिड़िया,
तूने जब सिखाना शुरू किया डाली-डाली चलना,
तब तक मैंने उड़ा ली थी उची सी एक उड़ान,
पर तेरे द्वारा पंखो को धीरे – धीरे से खुलवाना और फिर
घबराकर मुझको उड़ते हुए देखना,
अच्छा लगता था तेरा तेरा वो सुरक्षा देने का भाव ,
इसीलिए न बताया कभी , की मैं तो उड़ चुकी हूँ ; उची सी एक उड़ान, घूम चुकी हूँ दूर तलक ये गगन विशाल,
देखे है मैंने भाती-भाती के बहेलिये जो देते है प्रलोभन अपार,
देख चुकी हूँ फसते हुए चिडियों को बेशुमार,
बचते हुए सदा तेरे पास आती हूँ ये जताने की तेरी चिड़िया है अभी भी वही नादाँ,
गर पता चले की तेरी चिड़िया है इतनी ‘चलाक’ तो कभी खफा न होना इस बात से मेरी “माँ ”
…क्योकि… यही बेखबर बाते बनाती है “तेरी चिड़िया” को ‘ख़बरदार ‘ , ‘बहेलियो’ से बचाती है अपना बचाव ….
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