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जब चाहती हूँ सुकून में रहना, तो तुम्हारे पास पहुंच जाती हूँ … शांति के ख़्वाब को लिए तुम्हारे पास चलती चली जाती हूँ ,
जाती तो तुम्हारे ही दरवाज़े हूँ, पर द्धार खटखटाते – खटखटाते , दिन से रात हो जाते – जाते, वापस बिन आसरे जा कर खड़ी हो जाती हूँ,
सोचती हूँ हर बार अबकी न जाउंगी तुम्हारे पास, जब तुम खुद ‘मिन्नतें करते हुए’ , ‘मनाते हुए’ आओगे मेरे पास, तब जाउंगी तुम पर करते हुए अहसान……
अपने स्वाभिमान को कुचलने का, इतना तो लूंगी हिसाब..
क्यों तब गलत होउंगी मैं जबकि तुमने इतना तरसाया मुझे, मेरे अहम को बार-बार ठेस पहुचाया तुमने .. क्यों न लूँ मैं बदला ?? .. मैं लूंगी बदला , मैं भी दिखाउंगी अपनी शान मान-मान के (बार=बार मानूंगी ,फिर रूठूंगी ) झिकाउंगी मैं तुम्हे ..
खुद पर बीते सारे अहसासों से गुजरवाउंगी मैं तुम्हे ..
जब कर लोगे सारे अहसास, समझ लोगे सारी पीड़ा, तब दौड़ के तुमसे गले लग जाउंगी और खूब लुटाऊंगी प्यार कि अपने सारे दिखावटी कड़वाहटो को मिटा दूंगी और तुम्हे थामूंगी इतना जकड कर, कि फसे रह जाओगे मेरे पास …..
सब ख्यालो में खोते उबरते फिर पहुंच जाती हूँ तुम्हारे पास , फिर खटखटाती हूँ तुम्हारा द्धार … बार-बार इतने दुत्कारने के बाद भी, लौट भी आती हूँ, ये सोच के कि अब न जाउंगी तुम्हारे पास …. पर तुम भी किस्मत वाले हो, ऐसा प्यार पाया है कि लौट के भी कभी वो लौट नही पाया है !
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